Description
पुस्तक का उद्देश्य –
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की पहचान रही है। किसी भाषा में उस क्षेत्र की संस्कृति अभिव्यक्ति पाती है । यह सांस्कृतिक पहचान नागर और पढ़े-लिखे लोगों की ही नहीं, ग्रामीण और लोक की भी होती है । लोक की सांस्कृतिक पहचान वहां के लोकगीतों, लोक कथाओं आदि में अनुस्यूत होती है। लोक अपनी सरल, सहज, निश्छल मौखिक अभिव्यक्ति में सांस्कृतिक धरोहरों को सुरक्षित रखता है तो शिष्ट जन लिखित साहित्य में सांस्कृतिक मूल्यों, आचारों और प्रभावों को अंकित करता चलता है। प्रस्तुत पुस्तक के संपादन के पीछे का एक बड़ा कारण यही था कि भारत की विभिन्न भाषाओं में उस भाषा भाषी क्षेत्र विशेष के नागर एवं लोक के सांस्कृतिक स्वरूप की पहचान स्पष्ट हो सके ।
भारत की संस्कृति आरंभ से ही सामासिक रही है। उत्तर – दक्षिण, पूर्व – पश्चिम देश में जहां भी जो हिंदू बसते हैं , उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामासिक संस्कृति की विशेषता है। तब हिंदू और मुसलमान है , जो देखने में अब भी दो लगते हैं, किंतु उनके बीच भी सांस्कृतिक एकता विद्यमान है जो उनकी भिन्नता को कम करती है । दुर्भाग्य की बात है कि हम इस एकता को पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ रहे हैं। यह कार्य राजनीति नहीं , शिक्षा और साहित्य के द्वारा संपन्न किया जाना चाहिए।
-रामधारी सिंह दिनकर
( संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका से)
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